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नम्रता और विनय
नम्रता : अपनी सरलता में सराहनीय ।
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महान् सत्ताएं हमेशा सबसे अधिक सरल और विनयशील होती हैं ।
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अपना उचित मूल्यांकन : सरल और विनयशील, अपने-आपको आगे धकेलने की कोशिश नहीं करता ।
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विनयशीलता अपनी ही सौम्यता से सन्तुष्ट रहती है और अपनी ओर ध्यान नहीं खींचती ।
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हम योग-पथ पर जितना आगे बढ़ते हैं उतने ही विनयशील बनते जाते हैं और उतना ही अधिक यह देखते हैं कि जो करना बाकी है उसकी तुलना में हमने कुछ भी नहीं किया है । ४ जून, १९५६
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हमें यह सीखना चाहिये कि हमने चाहे जितना प्रयास, चाहे जितना संघर्ष किया हो, चाहे जितनी विजय पायी हो, हम जिस पथ को पूरा कर चुके हैं वह, अभी जिस पर चलना बाकी है उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है ।
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अपने-आपको बड़ा या छोटा, बहुत महत्त्वपूर्ण या एकदम नगण्य न समझो क्योंकि हम अपने-आपमें कुछ भी नहीं हैं । हमें भगवान् जो बनाना
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तुम बहुत बुद्धिमान् होते जा रहे हो और महसूस कर पा रहे हो कि हम कुछ नहीं हैं, हम कुछ नहीं जानते, हम कुछ नहीं कर सकते । केवल 'परम प्रभु' जानते हैं, करते हैं और हैं ।
सच्ची नम्रता इसमें है कि तुम यह जानो कि केवल 'परम चेतना', 'परम संकल्प' का ही अस्तित्व है और 'मैं' नहीं हूं ।
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नम्र होने का मन, प्राण और शरीर के लिए अर्थ है यह कभी न भूलना कि भगवान् के बिना वे कुछ नहीं जानते, कुछ नही हैं और कुछ नहीं कर सकते । भगवान् के बिना वे अज्ञान, अव्यवस्था और असमर्थता के सिवा कुछ नहीं हैं । केवल भगवान् ही 'सत्य', 'जीवन', 'शक्ति', 'प्रेम' और 'सुख-शान्ति' हैं ।
अत: मन, प्राण और शरीर को हमेशा के लिए यह सीख लेना और अनुभव कर लेना चाहिये कि वे भगवान् को केवल उनके सार-तत्त्व में ही नहीं बल्कि उनकी क्रिया और अभिव्यक्ति में भी समझने या उनका मूल्यांकन करने में एकदम असमर्थ हैं ।
यही एकमात्र नम्रता है और इसके साथ आती हैं अचंचलता और शान्ति ।
और यही सब प्रकार के विरोधी आक्रमणों के आगे सबसे निश्चित ढाल है । वस्तुत: मनुष्य में 'विरोधी शक्ति' हमेशा घमण्ड के दरवाजे को खटखटाती है क्योंकि यही दरवाजा खुलकर उसे अन्दर आने देता है ।
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तुम्हारा व्यक्तिगत मूल्य या निजी उपलब्धि कुछ भी क्यों न हो, योग में पहला आवश्यक गुण है नम्रता । *
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सचमुच सच्ची नम्रता हमारा रक्षाकवच है-यह अहंकार के अनिवार्य विलयन के लिए सबसे निश्चित मार्ग है ।
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नम्रता और सच्चाई सबसे अच्छे रक्षाकवच हैं । उनके बिना एक-एक पग खतरनाक है, उनके साथ विजय निश्चित है ।
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